Aristotle biography in hindi:- एरिस्टॉटल रोजर ब्रेकन ने एक स्थान पर कहा है , ” मेरा बस चले तो मैं एरिस्टॉटल की सब किताबें जलवा दूं । इनसे मुफ्त में वक्त बरवाद होता है , शिक्षा गलत मिलती है , और अज्ञान ही बढ़ता है । ” ये शब्द स्वयं एक ऐसे व्यक्ति के हैं जो अपने युग का एक असाधारण वैज्ञानिक था ।
इनमें आलोचना की कुछ कटुता अवश्य आ गई है किन्तु वस्तुतः इनमें यूनान के उस प्राचीन दार्शनिक वैज्ञानिक की अदभुत प्रतिभा की प्रशंसा ही हुई है कि उसका महत्व और प्रभाव कितना स्थायी है ।
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Aristotle biography in hindi
एरिस्टॉटल ( अरस्तू ) का जन्म ईसा से 354 साल पहले ईजियन समुद्र के उत्तरी छोर पर स्थित स्टैंगीरा नाम के शहर में हुआ था । पिता एक शिक्षित और घनी मानी व्यक्ति था और अलेक्जेण्डर ( सिकन्दर ) महान के दादा के यहां शादी हकीम था । एरिस्टॉ टल की आरम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया गया और स्वयं पिता ने ही प्राकृत ज्ञान – विज्ञान में बालक की मनोभूमि को संबंधित पल्लवित किया । 367 ई ० में 17 साल की उम्र में एरिस्टॉटल एथेन्स गया , जो उन दिनों विद्या पू ० का प्रसिद्ध केन्द्र था ।
एथेन्स में उसने प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की छत्रछाया में विद्याभ्यास किया । बाल्यावस्था से ही एरिस्टॉटल ने अपनी कुशाग्र एवं स्वतन्त्र बुद्धि का परिचय देना शुरू कर दिया – प्लेटो के विचारों को भी उसने बिना आत्मपरीक्षा के कभी स्वीकार नहीं किया । जो कुछ ग्राह्य प्रतीत हुआ वही स्वीकार किया ; अन्यथा , जहां मतभेद दीखा वहां , नये सिरे से चिन्तन से हिचकिचाया नहीं । शीघ्र ही एरिस्टॉटल की ख्याति एक असाधारण अध्यापक के रूप में फैलने लगी ।
एरिस्टॉटल 17 मैसीडोनिया से उसे बुलावा आया कि वह 14 साल के राजकुमार अलेक्जेण्डर की शिक्षा दीक्षा को अपने हाथ में ले ले । यही राजकुमार जब अलेक्जेण्डर महान बन गया , वह अपने गुरु के ऋण को भूला नहीं और समय – समय पर वैज्ञानिक अध्ययन तथा अनुसन्धान में एरिस्टॉटल की सहायता भी करता रहा । अनुमान किया जाता है कि एरिस्टॉटल ने कोई 400 और 1,000 के बीच ग्रन्थ लिखे ।
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स्वभावतः सन्देह हो उठता है कि ये किताब सब उसकी अपनी लिखी हुई हैं या अन्य सहयोगियों एवं वैज्ञानिकों की कृतियों का सम्पादन मात्र हैं । इनमें इतने अधिक विषयों का विवेचन हुआ है , और इतना सूक्ष्म विवेचन हुआ है , कि इनका सहसा एक ही लेखक की कृति होना असम्भव प्रतीत होता है । खैर , वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए उस पुराने जमाने में भी एरिस्टॉटल के पास सहयोगियों का एक खासा वर्ग था ।
1,000 के करीब वैज्ञानिक उसके निर्देशन में सारे ग्रीस में घूमे और एशिया की भी सैर करके , समुद्रीय और स्थलीय जीवों के नमूने इकट्ठे कर लाए और इन संग्रहों के विस्तृत वर्णन भी उन्होंने आकर एरिस्टॉटल को पेश किए । एरिस्टॉटल के अनुसन्धानों का सबसे अधिक स्थायी महत्त्व शायद प्राणिविज्ञान तथा पशुविज्ञान में ही हुआ है । इन गवेपणाओं को देखकर हम आज भी चकित रह जाते हैं कि वह वैज्ञानिक प्रणाली के आधुनिकतम रूप को किस प्रकार प्रयोग में ला सका ।
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दिन का कितना ही समय वह खुद समुद्र के किनारे गुजारा करता – समुद्र – जीवन का अध्ययन करते हुए उसे खुद अपना होश न रहता । और जो भी अध्ययन वह इर्द – गिर्द के पशु – पक्षियों का कर गया है , उसका महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ है । कुछ अध्ययन तो उसके ऐसे हैं जिन्हें अरसे तक निरर्थक समझा जाता रहा किन्तु आज उनकी सत्यता अक्षरशः प्रमाणित हो चुकी है ।
यह प्रतीति एरिस्टॉटल को भी हो चुकी थी कि सृष्टि व्यवस्था में कुछ क्रम है- जीवित प्राणियों का , जीवन की प्रक्रिया में उनकी निरन्तर बढ़ती संकुलता के आधार पर , वर्गीकरण किया जा सकता है । और यह अनुभव भी एरिस्टॉटल को हो चुका था कि इन प्राणियों का अंगांग विकास किस प्रकार इनके आसपास की परिस्थितियों के अनुकूल ही हुआ करता है ।
मानव सभ्यता के विकास में एरिस्टॉटल वैज्ञानिकों के उस महान वर्ग का अग्रदूत प्रतीत होता है जिनकी दृष्टि में सृष्टि का कण – कण एक सुन्दर व्यवस्था का जीवित – जागरित प्रमाण है – व्यवस्था होन अथवा निरर्थक यहां कुछ भी नहीं है । वैज्ञानिक प्रणाली का एक मूलभूत सिद्धान्त यह है कि हम अपने आसपास की दुनिया में और परीक्षणशाला में खुली आंखों से हर चीज़ को प्रत्यक्ष करें , तथा उसके सम्बन्ध में परीक्षण करें ।
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एरिस्टॉटल और उसके सहयोगियों ने प्राणिविज्ञान में इस प्रणाली को किस सुन्दरता के साथ निभाया ! किन्तु एरिस्टॉटल के बाद जैसे 1,500 साल बीत जाने ज़रूरी थे पेशतर इसके कि एल्बर्टस मैग्नस आकर उसके अधूरे काम को फिर से हाथ में ले । मैग्नस ने स्वयं भी कुछ मौलिक अध्ययन किए जिनके आधार पर वह एरिस्टॉटल के कार्य की कुछ अभिवृद्धि एवं आलोचना कर सका ।
एरिस्टॉटल की गवेषणाएं प्राणिविज्ञान के बहिरंग तक सीमित न थीं , अंगांगविश्व के महान वैज्ञानिक 18 विच्छेद द्वारा शरीर के अन्तरंग का ज्ञान इतिहास में शायद एरिस्टॉटल ने ही प्रवर्तित किया । आन्तरिक रचना में भी किस तरह अन्तर आता रहता है- इसका भी प्रथम प्रत्यक्ष उसीने किया । अर्थात् , प्राणिविज्ञान की आधुनिक प्रणालियों का भी वह एक तरह से अग्रदूत ही था , जनक ही था ।
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भास एच ० जी ० वेल्स ने ‘ इतिहास की रूपरेखा ‘ में एरिस्टॉटल के बारे में लिखा है , ” ज्ञान – विज्ञान को एक व्यवस्थित क्रम में बांधने की कितनी आवश्यकता है , यह अनुभव करते ही एरिस्टॉटल जैसे बेकन का और हमारी आधुनिक वैज्ञानिक गतिविधि का पूर्वा दे चला हो ! और सचमुच उपलभ्य ज्ञान – विज्ञान के संग्रह में तथा उस संग्रह के क्रम बन्धन में उसने अपने आप को खपा ही डाला ।
प्राकृतिक विज्ञान का वह प्रथम इति हासकार था । वस्तु – जगत् की प्रकृति के सम्बन्ध में औरों ने उससे पूर्व कल्पनाएं ही की थीं , किन्तु एरिस्टॉटल ने आकर , जिस नौजवान को भी वह प्रभावित कर सका उसे अपने साथ में लिया और प्रत्यक्ष का तुलनात्मक संग्रह तथा वर्गीकरण शुरू कर दिया । ” तो फिर बेकन एरिस्टॉटल की किताबों के पढ़ने – पढ़ाने के इतना खिलाफ क्यों है ?
इसलिए कि प्राणिविज्ञान में जहां एरिस्टॉटल की दृष्टि इतनी सूक्ष्म थी वहां भौतिकी में पता नहीं क्यों वह इतनी अक्षम्य अशुद्धियां कर कैसे गया । वही वैज्ञानिक प्रणाली थी जिसको इस खूबी के साथ प्राणिविज्ञान में निभाया गया था , किन्तु नक्षत्रों के अध्ययन में , तथा इस स्थूल जगत् के अध्ययन में , उसका या तो सही इस्तेमाल नहीं हो सका या फिर उपेक्षा हो गई ।
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1,500 साल तक एरिस्टॉटल असाधारण रूप से विचार जगत् पर छाया रहा । उसके ग्रन्थों को विउन्मण्डल इस तरह कबूल करता रहा जैसे वे कोई बाइबल या कुरान के पन्ने हों , और वह भी सिर्फ इसलिए कि एरिस्टॉटल की उनपर मुहर लगी हुई थी ! एरिस्टॉटल के इस तरह के कुछ विचारों का निदर्शन सम्भवतः प्रासंगिक हो जाता है ।
उसका ख्याल था कि इस हमारी धरती पर जितनी भी चीजें हैं , उन्हें गरम – सरद और गीले – सूखे में , परिमाण – भेद के अनुसार , बखूबी विभक्त किया जा सकता है , और इस तरह एक क्रम भी दिया जा सकता है । वस्तु – वस्तु में इन चार गुणों के अन्तर का आधार होते हैं । ये चार तत्त्व : जल , वायु , अग्नि और पृथ्वी । उदाहरणतया , लकड़ी के एक लठ्ठे को आग में झोंक दीजिए ।
उसका पानी तुरन्त बाहर निकलना शुरू हो जाएगा , धुएं की सूरत में उसकी हवा ऊपर को उठ चलेगी , आग तो प्रत्यक्ष है ही , और बच रहेगी राख , अर्थात् मिट्टी । किन्तु हां , आकाश एक और ( देवी ) तत्त्व का बना होता है जिसमें कुछ परि वर्तन नहीं आता । अर्थात् यह विश्व हमारा पांच तत्त्वों या भूतों का ही एक विलास या विकार है । आकाश – बाहर , खाली जगह में , सभी कहीं फैला होता है ।
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आग की लपट स्वभावतः ऊपर को उठती है । पानी धरती के ऊपर बहता है । हवा पानी से भी ऊपर , किन्तु आग के नीचे , घूमती – फिरती है । पृथ्वी के ये चार तत्त्व , इस प्रकार , परस्पर ऊपर – नीचे एक अधरोत्तरी – सी में गतिमान होते हैं किन्तु आकाश एक परिधि में वृत्ताकार परिक्रमा करता हुआ सर्वत्र व्याप्त है । आकाश ही इन पांच तत्त्वों में देवी है , पूर्ण है ।
19 एरिस्टॉटल उसका परिक्रमा मार्ग भी , एक पूर्ण तत्व के लिए एक पूर्ण परिक्रमा मार्ग होने के नाते , एक पूर्ण आकृति ही होना चाहिए : वृत्त ही एकमात्र पूर्णतम आकृति है । 1009 में केपलर ने जब प्रत्यक्ष किया कि इन ग्रह – नक्षत्रों के परिक्रमा मार्ग वृत्ताकार नहीं , अण्डाकार होते हैं तो उसे मानो अपनी ही आंखों पर , अपनी ही गणनाओं पर विश्वास नहीं आया , क्योंकि एरिस्टॉटल के आकाश तत्व का इतना पुराना बद्ध – मूल इतिहास जो चला आता था । गैलीलिओ के वक्त से अब हर कोई जानता है कि हवा जो रुकावट पेश करती है ।
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उसे अगर दूर किया जा सके तो हलकी और भारी , सभी चीजें एक साथ छोड़ने पर एक ही साथ जमीन पर आ गिरेंगी । किन्तु एरिस्टॉटल का प्रत्यक्ष कुछ अधूरा था । इसलिए जरूरी था कि उसका नतीजा भी कुछ गलत ही निकलता । उसने देखा कि एक पत्थर एक पत्ते की अपेक्षा ज्यादा तेजी के साथ जमीन पर आ जाता है और यह सच भी है – और वह एकदम से इस परिणाम पर पहुंच गया कि भारी वस्तुएं हल्की वस्तुओं की अपेक्षा जल्दी जमीन पर गिरती हैं ।
उसकी युक्ति थी कि दो सेर वचन की कोई चीज एक सेर वजन की किसी दूसरी चीज से आधे वक्त में जमीन पर आ जानी चाहिए । लेकिन इस सम्बन्ध में उसने कोई परीक्षण नहीं किया ; उसे यही कुछ युक्तियुक्त प्रतीत हुआ । 1585 के आसपास एक डच गणितज्ञ ने रांगे की दो गेंदें अपने घर की खिड़की से एक साथ नीचे की ओर छोड़ीं । इनमें एक , वजन में , दूसरी से दस गुना भारी थी ।
खिड़की से 30 फुट नीचे लकड़ी का एक प्लेटफार्म था । दोनों के गिरने पर एक ही आवाज सुनाई पड़ी जो इस बात का सबूत थी कि दोनों वजन एक ही साथ जमीन पर गिरे हैं । एरिस्टॉटल एक महान वैज्ञानिक था । दुर्भाग्य से , आवश्यकता से कुछ अधिक महान । क्षुद्रबुद्धि लोग जो उसके बाद में आए उसकी गलतियों को भी उसकी महान गवेषणाओं के साथ बाबा – वाक्य मानकर चलते रहे , और हर प्रश्न का समाधान उसकी उन पुरानी पोथियों में ही पड़तालते रहे जैसे वे त्रि – काल सत्य हों ।