Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi- शिवरामकॄष्णन चंद्रशेखर 2022

Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi:- शिवरामकृष्ण चंद्रशेखर कंप्यूटर , इलेक्ट्रॉनिक , जीरोग्राफी , चिप स्कैनिंग , इलेक्ट्रॉनिक संचार तथा दूरसंचार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में तरल क्रिस्टल का प्रयोग किया जाता है । यह तरल क्रिस्टल प्राय : बेलनाकार संरचना के रूप में पाए जाते थे ।

Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi

किंतु भारत के वैज्ञानिक शिवरामकृष्ण चंद्रशेखर ने तश्तरी के आकार वाले क्रिस्टलों की खोज कर तरल क्रिस्टल तकनीक का स्वरूप ही बदल डाला । 

उन्होंने विश्व को एक नई तकनीक प्रदान की । इसकी खोज से कंप्यूटर चिप तथा कम्युनिकेशन वायर के निर्माण से संबंधित अनेक शोध संभव हो सके । उन्हें तरल क्रिस्टल तकनीक का जनक कहा जाता है । उनकी इस नई व क्रांतिकारी खोज के कारण रशियन एकेडमी द्वारा उन्हें लिक्विड क्रिस्टल के मेडल से सम्मानित किया गया । 

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जीवन परिचय तथा शिक्षा

Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi :-भौतिक विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले इस वैज्ञानिक का जन्म 6 अगस्त 1930 को कलकता ( पश्चिम बंगाल ) में हुआ था । उनके पिता का नाम शिवरामकृष्ण था । पिता का नाम जोड़कर ही उनका नाम शिवरामकृष्ण चंद्रशेखर रखा गया था । उन्होंने 1951 में नागपुर के कॉलेज ऑफ साइंस से एम . एस . सी . की शिक्षा पूरी की तथा 1954 इसी कालेज से डी . एस . सी . की उपाधि प्राप्त की ।

वह ज्ञान , प्रतिभा व योग्यता के भंडार थे । एम . एस . सी . करने से पूर्व ही 1942-43 के दौरान वह शिकागो विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर रह चुके थे तथा 1944-47 तक एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्य करते रहे थे । उनकी इस उपलब्धि के लिए उन्हें आर . के चन्डोरकर गोल्ड मेडल प्रदान किया गया था ।

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शिकागो विश्वविद्यालय से उनका काफी संबंध रहा है । इसलिए उन्हें 1952 में सैद्धांतिक खगोल भौतिकी ( एस्ट्रोफिजिक्स ) के लिए विशेष सेवा देने वाले प्रोफेसर के रूप में कार्यभार सौंप गया था ।

Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi

कैरियर (Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi)

Sivaramakrishna Chandrasekhar Biography in Hindi :-शिकागो विश्वविद्यालय से इतने वर्षों जुड़े रहने के बाद उन्होंने शोध कार्य का विचार किया और 1957 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पी . एच . डी . की शिक्षा पूरी की । इसी वर्ष वह लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में पोस्ट डाक्टोरल रिसर्च स्कॉलर के रूप में कार्य करने लगे और 1959 तक इससे जुड़े रहे ।

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इस शोध कार्य की समाप्ति के बाद 1959 में ही वह एफ . आर . एस . बन गए । शिकागो विश्वविद्यालय से अपना विज्ञान कैरियर प्रारंभ करने वाले चंद्रशेखर 1961 में भारत आ गए और मैसूर में मानस गंगोत्री विश्वविद्यालय में 1971 तक क्रमश : प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे ।

भारत आकर उन्हें महान वैज्ञानिक सी . वी . रमन का दिशा निर्देशन मिला और वह उनके मार्गदर्शन में शोध कार्यों से जुड़े रहे । इसी वर्ष वह बंगलौर के रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर बन कर आए । इसी संस्थान में उन्हें कुछ नया करने का विचार आया । इस विचार से वह तरह क्रिस्टल के क्षेत्र में प्रयोग करने लगे और कुछ समय बाद ही सफलता उनके कदम चूमने लगी ।

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उन्होंने एक के बाद एक कई महत्वपूर्ण शोध किए । उनकी सफलताओं ने तरल क्रिस्टल तकनीक का स्वरूप ही बदल डाला । क्रिस्टलों की खोज इस क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त करते हुए उन्होंने तश्तरी के आकार वाले नए तरल क्रिस्टलों की खोज करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया ।

उनके लिए रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में ही शोध केंद्र की स्थापना भी कर दी गई थी , ताकि उनका कार्य निर्बाध रूप से चलता रहे । उन्होंने क्रिस्टल के प्रकाशीय चक्रीय गति प्रकीर्णन (आप्टिकल रोटेटरी डिस्पर्सन) के लिए एक नया चतुष्कोणीय या वर्गाकार फार्मूला प्रतिपादित किया ।

इस उल्लेखनीय योगदान के लिए 1972 में उन्हें दो सम्मान मिले , वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद का रजत जयंती अवार्ड तथा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार । किंतु किसी भी पुरस्कार के मोह से हटकर वह निरंतर कार्य करते रहे । उन्हें 1979 में फिक्की अवार्ड तथा 1981 में सी . वी . रमन अवार्ड भी प्रदान किया गया ।

1984 में उन्हें भौतिकी में महत्वपूर्ण कार्यों के लिए महेंद्रलाल सिरकर अवार्ड मिला । इसी कार्य के लिए उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि भी प्रदान की गई । 1986 में उन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय की कैवंडिश प्रयोगशाला में अतिथि प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया गया । वह दो वर्षों तक इस प्रयोगशाला से जुड़े रहे । यहीं से उन्होंने पुन : पी . एच . डी . की उपाधि अर्जित की ।

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इस महान अवसर व सम्मान को प्राप्त करने के बाद 1986 में ही कर्नाटक सरकार द्वारा उन्हें कर्नाटक राज्योत्सव अवॉर्ड देकर सम्मानित किया गया । अगले ही वर्ष 1987 में उन्हें इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी ने उन्हें होमी भाभा मेडल प्रदान किया तो 1968 में रमन शताब्दी मेडल दिया गया । इन सम्मानों के अलावा उन्हें नील्स बोहर यूनेस्को मेडल , शेवाइलर डेन्स लॉर्डर डेस पामेस एकेडमीक ( फ्रांस ) से जवाहरलाल नेहरू अवार्ड , आर . डी . बिरला अवार्ड भी मिले । लंदन की रॉयल सोसायटी ने उन्हें रॉयल मेडल देकर सम्मानित किया ।

फ्रांसीसी पुरस्कार के संदर्भ में चंद्रा ने डिस्कोटिक्स की खोज में फ्रांसीसी नोबल विजेता पिचरे डीजेन्स को भी पीछे छोड़ दिया । कई वैज्ञानिक संस्थानों के फेलो अपने कैरियर के दौरान चंद्रा विश्व की कई वैज्ञानिक संस्थानों के फेलो भी रहे । वह 1983 में रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन , 1989 से 1990 तक इंडियन अकादमी ऑफ साइंस ( उपाध्यक्ष व फेलो ) , 1990 में भटनागर फेलो , इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी , लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स के फेलो रहे ।

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वह इटली की तीसरी विश्व विज्ञान एकेडमी के संस्थापक फेलो भी रहे । उनके महान वैज्ञानिक विचारों को विश्व की कई संस्थाओं ने ग्रहण किया । उन्होंने चंद्रशेखर को अपने संस्थान में सदस्यता प्रदान की और उनके अनुभवों से लाभ उठाया ।

इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ साइंटिफिक यूनियन कमेटी आन टीचिंग ऑफ साइसेंस , नेशनल कमेटी फॉर इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिजिक्स , काउंसिल ऑफ एसोसिएशन ऑफ एशिया पैसिफिक फिजिकल सोसायटी जैसी संस्थाओं ने उन्हें अपना सदस्य बनाया । तरल रवे : ठोस और द्रव के बीच की अवस्था तरल क्रिस्टल शोध को गति प्रदान करने के लिए उनके द्वारा बंगलौर में 1995 में लिक्विड क्रिस्टल रिसर्च सेंटर की स्थापना की गई ।

जहां वह जीवनपर्यंत कार्य करते रहे । वह इंग्लैंड की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था रॉयल इंस्टीट्यूट से भी नजदीक से जुड़े रहे । जीवनभर भौतिक विज्ञान की सेवा करते हुए 73 वर्ष की आयु में 8 अलविदा कह दिया । मार्च 2004 को इस महान वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला , भौतिकी व विज्ञान को कोई भी पदार्थ ठोस , द्रव या गैस रूप में पाया जाता है ।

कम तापमान पर पदार्थ के अणु आकर्षण – विकर्षण बल के कारण परस्पर सटकर ठोस हो जाते हैं किंतु तापमान बढ़ने पर वह आकर्षण बल से उबरकर , पिघलकर तरल रूप ले लेते हैं । यह पदार्थ का गलनांक तापमान होता है । किंतु किसी भी पदार्थ में मिलावट होने पर उसका गलनांक कम हो जाता है । किंतु जब तापमान उबलने के स्तर पर पहुंचता है तो पदार्थ के अणु आकर्षण से पूरी तरह मुक्त होकर गैस अवस्था में इधर – उधर उड़ जाते हैं ।

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यह तापमान का क्वथनांक कहलाता है जो मिलावट होने पर बढ़ जाता है । 1950 में चंद्रा ने नए व क्रांतिकारी विचारों के साथ तरल रखों की संकल्पना को गति प्रदान की । यद्यपि 1888 में आस्ट्रेलिया के वनस्पति शास्त्री फ्रेडरिच राइनीट्जर ने कोलोस्टेराइल बेंजोएट पदार्थ के दो गलनांक ज्ञात किए थे । इसी बीच जर्मन भौतिक शास्त्री लेमैन ने भी लगभग तरल रवेदार पदार्थ की खोज कर दी थी ।

यद्यपि इसके बाद भी कई वैज्ञानियों ने इस दिशा में काम किया किंतु चंद्रा ने एक नए प्रकार के ( डिस्कोटिक तरल रखों ) की खोज की थी । ये रवे हेक्साहायड्राक्सीबेंजीन के एल्काइल एस्टर्स थे । जिनसे न केवल तरल रखों को समझने में मदद मिली बल्कि ये कई अनुसंधान कार्यों में भी उपयोगी सिद्ध हुए ।

इनकी उपयोगिता के कारण ही भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड ने चंद्रा के लिए तुरंत लिक्विड क्रिस्टल रिसर्च सेंटर की स्थापना कर दी जब वह रमन इंस्टीट्यूट से सेवानिवृत हुए थे ।