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वैक्सीन बनाने वाली पहली प्रयोगशाला फ्रांसीसी जीवविज्ञानी लुई पाश्चर द्वारा बनाई गई थी, जिसके बाद इस प्रक्रिया को पाश्चराइजेशन नाम दिया गया था। उन्होंने चिकन शोरबा में बैक्टीरिया की खेती की, लेकिन पाया कि बैक्टीरिया खराब हो गए थे और मुर्गियों में बीमारी पैदा नहीं करते थे।
बात साल 1656 की है ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में सेवारत गणित के एक प्रोफेसर ने एक परिचित रॉबर्ट बील के सामने दावा किया कि वह किसी भी जानवर के खून में एक तरल पदार्थ डाल सकता है। यह प्रोफेसर थे डॉ. रेन। बील रेन की बात की जांच करना चाहता था। उन्होंने डॉ. रेन को एक बड़ा कुत्ता पेश करके अपने दावे को प्रदर्शित करने के लिए कहा। डॉ. रेन ने भी अपने दावे की पुष्टि के लिए धतूरा के जहर को कुत्ते के शरीर में इंजेक्ट किया। यह प्रयोग कई डॉक्टरों और बुद्धिजीवियों के सामने किया गया। प्रदर्शन सफल रहा। धतूरे के जहर का असर उस कुत्ते पर कुछ देर बाद देखने को मिला।
एक साल बाद एक घरेलू नौकर की धमनी में Croix Meterol नामक पदार्थ को इंजेक्ट किया गया, लेकिन यह प्रयोग अधिक प्रभावी नहीं हुआ। सन 1628 ई. में विलियम होर्व नाम के एक सर्जन ने शरीर में निश्चित मार्ग और धमनियों के बीच हृदय तक रक्त के प्रवाह के संबंध के बारे में जानकारी दी। तभी से जानवरों के खून में दवा मिलाने का विचार चल रहा था। लेकिन इस दिशा में सभी अपने-अपने स्तर पर प्रयोग कर रहे थे। 1844 ई. के आसपास जब मानव त्वचा की सतह के नीचे इंजेक्शन लगने लगे तो डॉक्टरों का ध्यान इंजेक्शन की सुई और उसके डिजाइन पर भी गया। पहले सुई बहुत मोटी होती थी। यह इतना तेज भी नहीं था कि बिना ज्यादा दर्द के मानव शरीर में प्रवेश कर सके।
पहली बेहतर सुई और इंजेक्शन का इस्तेमाल 3 जून 1844 को डॉ. फ्रांसिस रिंड ने डरबिलोन के मीथ अस्पताल में किया था। डॉ. रिंद ने भी लगातार 17 वर्षों तक इस इंजेक्शन को किसी को नहीं बताया और न ही इसके निर्माण की विधि आदि के बारे में किसी को बताया। 1861 में उन्होंने अपने इंजेक्शन के बारे में एक लेख लिखा। यहां 1853 में एडिनबर्ग निवासी डॉ एलेक्जेंडर वुड ने भी एक इंजेक्शन तैयार किया था। इसकी लंबाई 90 मिमी है। और चौड़ाई 10 मिमी। था। इसके पिस्टन के ऊपरी हिस्से को रुई से लपेट कर इंजेक्शन में लगाया गया था। इंजेक्शन के विकास में किए गए उपरोक्त प्रयासों को भुलाया नहीं जा सकता है।